लेखनी प्रतियोगिता -14-Mar-2023
हवा में हाथ
बुनियाद हिलने लगी है 'मुसाफिर'
कमजोर यकीं दबे पत्थर का हुआ...
ये सिलसिला मेरे ही घर का नहीं
ये तेरे, उसके भी घर का हुआ...
नहीं है अब कोई रहमत यहां,
नहीं फायदा है झोली फैलाने का।
झुका लो हाथ ऐ मुसाफिर,
कोई असर नहीं हवा में हाथ उठाने का।
समझते हैं स्वार्थी तुझे
मगर मतलब का यहां कोई नाम नहीं
जो शक की तलवार से काट रहे
वहां प्रेम, मित्रता का रहा काम नहीं
मुश्किलें कितनी वो क्या जाने
अंजाम है हालात से टकराने का।
यहां तेरा,मेरा है कोई नहीं...
और असर नहीं हवा में हाथ उठाने का।
कुछ हंस रहे हैं हालात देखकर
कुछ पीठ पीछे खंजर घोंप रहे है
सहारे की उम्मीद भी अब क्या?
तू मतलबी है ये सब सोच रहे हैं
काला मन हो तो क्या करें?
वहां ठीक नहीं समझाने का।
अब कौन बनेगा सहारा ऐ मुसाफिर
नहीं असर हवा में हाथ उठाने का।
हाय! पानी फिर गया यकीं पर
बंजर हृदय को कर डाला
टूटा था पहले से ही बहुत
अब घोर क्षोभ से भर डाला
क्यों इंसानियत मर चुकी है?
क्यूं दौर है ये बदल जाने का।
मिथ्या ही लगेगा तू सबको,
यहां असर है झूठ,छल कपटी जमाने का।।
रोहताश वर्मा ' मुसाफ़िर '
Gunjan Kamal
15-Mar-2023 09:25 AM
बहुत खूब
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Renu
14-Mar-2023 10:51 PM
👍👍🌺
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Sushi saxena
14-Mar-2023 07:49 PM
Nice
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